गोरखपुर-महाशिवरात्रि फाल्गुन के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी की रात्रि को मनाई जाती है। मनीषी बताते हैं कि यह रात साधारण नहीं,विशेषातिविशेष है।यही कारण है कि हर साल इस बेला पर भारतीय जनता में भक्ति-भावनाओं का ज्वार उमड़ उठता है।
अर्चना-आराधना के स्वर गुँजायमान होते हैं। शिवालय धूप-नैवेद्य से सुगंधित हो जाते हैं! पर क्या मात्र खाली पेट रहने;शिवलिंग पर बेल पत्र,जल,दूध इत्यादि का अभिषेक करने से भगवान शिव की सच्ची उपासना हो जाती है? इसका उत्तर हमें महाशिवरात्रि से जुड़ी प्राचीन व्रत कथा से मिलता है।
इस व्रत कथा का मर्म गूढ़ के साथ-साथ प्रेरणादायी भी है।
गुरुदेव श्री आशुतोष महाराज जी
(संस्थापक एवं संचालक, दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान)
आइए, इस कथा में निहित सार को पंक्ति-दर-पंक्ति समझने का प्रयास करते हैं।
कथा के अनुसार... हजारों वर्ष पूर्व ईक्ष्वाकु वंश के एक राजा हुए। उनका नाम था- ‘चित्रभानु’। राजा चित्रभानु पिछले जन्म में एक शिकारी थे। उनका नाम था- ‘सुस्वर’। एक बार वे शिकार करने के लिए जंगल में गए।
जंगल में अपने श्वान के संग शिकार को ढूँढ़ते हुए रात्रि हो गई। सो, उन्होंने उसी जंगल में रात्रि बिताने की सोची। यहाँ रात्रि मात्र सूर्यास्त होने का संकेत नहीं है। अपितु यह तो अज्ञानता के घोर अंधकार-‘अज्ञानतिमिरान्धस्य’ का प्रतीक है।
ऐसी अज्ञानता,जो मानुष में व्याप्त दिव्यता पर पर्दा डाल देती है, जिसके कारण वह अपने और दूसरों के भीतर विद्यमान ईश्वर के प्रकाश को नहीं देख पाता है। जीवन भर इस माया-रूपी जंगल में ही भटकता रहता है।
महाशिवरात्रि विशेष: एक साधक के लिए महाशिवरात्रि पर्व आध्यात्मिक उन्नति का पर्व
कथा आगे बताती है कि जंगली जानवरों से बचने के लिए सुस्वर किसी वृक्ष पर आश्रय लेने का निर्णय लेता है और अपने श्वान को नीचे छोड़कर नजदीकी बेल वृक्ष पर चढ़ बैठता है। सुस्वर के इस कृत्य के पीछे गूढ़ संदेश छिपा है।
यहाँ श्वान मानव की पाशविक वृत्तियों को दर्शाता है। उसको नीचे छोड़कर पेड़ पर चढ़ना ऊर्ध्वगामी होना है। यानी दिव्यता की ओर कदम बढ़ाना है।
विशेषकर बेल के पेड़ पर चढ़ने का भी अपना महत्व है। बिल्व वृक्ष ताप का परिचायक है।व्याध का बेल वृक्ष पर चढ़कर बैठना,वेद-वेदांत के मर्म यानी तत्त्वज्ञान या ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति का प्रतीक है।
अंतर्घट में शिव-तत्त्व को जानने की ओर संकेत है। इसकी प्राप्ति या ऐसी जिज्ञासा का अंत एक श्रोत्रिय-ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाकर ही संभव हो पाता है।
पूर्ण गुरु ही जिज्ञासु को अलौकिक ब्रह्मज्ञान प्रदान करते हैं।
आगे कथा में सुस्वर समय काटने हेतु बेल-पत्तियों को नीचे फेंकता रहता है। संयोगवश ये पत्तियाँ नीचे स्थापित शिवलिंग पर अर्पित होती जाती हैं।व्याध द्वारा शिवलिंग पर बेल पत्र अर्पित करना ध्यान की प्रक्रिया के दौरान आज्ञाचक्र में तीन नाड़ियों के मिलन को दर्शाता है।
पहले पेड़ पर चढ़ना,फिर बेल पत्तों को गिराना और फिर व्याध की मशक से शिवलिंग के ऊपर पानी का टपकना। यह शृंखला मात्र संयोग नहीं है। यह स्पष्ट और सूक्ष्म संकेत है, प्रभु शिव की शाश्वत भक्ति अर्थात् ब्रह्मज्ञान की ध्यान-प्रक्रिया का जो एक साधक के अंतस में चलती है।
व्याध द्वारा शिवलिंग पर जल को बूँद-बूँद गिराना, ब्रह्मज्ञान की अमृत पान की प्रक्रिया को दर्शाता है।
यह मात्र संयोग नहीं था कि पूरी रात्रि सुस्वर क्षुधा से बेहाल था। इस आलंकारिक भाषा के पीछे झाँकने से ज्ञात होता है कि यह स्थिति ‘उपवास’ की प्रतीक है। इसमें ‘उप’ का अर्थ है, ‘निकट’ और ‘वास’ का अर्थ है- ‘रहना’। किसके निकट? ईश्वर के! अतः उपवास का अर्थ हुआ- ‘ईश्वर के निकट वास करना।’
यही तो ध्यान की शाश्वत पद्धति है, जो हमें ईश्वर के प्रकाश स्वरूप का साक्षात् दर्शन कराती है और उस पर एकाग्र होने की युक्ति है। वास्तव में, ब्रह्मज्ञान की ध्यान-प्रक्रिया ही सच्चा उपवास है, प्रभु की सच्ची उपासना है। आशा करते हैं कि आप भी शिव-तत्त्व की शाश्वत उपासना करने के इच्छुक हुए होंगे और ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने की ओर अग्रसर होंगे। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से सभी पाठकों को महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ।
रिपोर्टर-अमर रॉय-गोरखपुर